मध्य प्रदेश की सियासत..
भोपाल। मध्य प्रदेश की राजनीति आज निर्णायक मोड़ पर नहीं, बल्कि निर्लज्ज टकराव और सुविधाजनक चुप्पी के दौर में फंसी हुई है।
राज्य में सत्ता भाजपा के हाथ में है और विपक्ष की भूमिका कांग्रेस निभा रही है, लेकिन सवाल यह है कि क्या दोनों ही दल जनता के साथ ईमानदार हैं?
भाजपा: सत्ता, साधन और संरक्षक—जवाबदेही गायब
भाजपा सरकार खुद को “सुशासन” का पर्याय बताती है मगर जमीनी हकीकत इससे उलट तस्वीर पेश करती है।
भर्ती घोटालों पर मौन क्यों?..सड़क, पुल और भवन निर्माण में गुणवत्ता पर सवाल उठते ही फाइलें क्यों दबाई जाती हैं?
जिन अफसरों पर गंभीर आरोप हैं, वे जांच के बजाय संरक्षण क्यों पाते हैं?
भाजपा की राजनीति आज जवाब देने की नहीं, मैनेज करने की राजनीति बन चुकी है।
सरकार में बैठे चेहरे बदलते हैं, लेकिन प्रणाली वही रहती है—आरोप, इनकार और फिर खामोशी।
कांग्रेस: मुद्दे हाथ में, धार गायब..
कांग्रेस खुद को जनता की आवाज बताती है, मगर उसकी आवाज अक्सर सदन की दीवारों से टकराकर लौट आती है।
सड़क पर संघर्ष क्यों नहीं दिखता?
हर घोटाले पर “जांच की मांग” के बाद चुप्पी क्यों?
सत्ता के खिलाफ आंदोलन स्थायी क्यों नहीं होते?
कांग्रेस की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि वह भाजपा की विफलताओं को अवसर में नहीं बदल पा रही। विपक्ष की भूमिका निभाने के बजाय कांग्रेस कई बार सिर्फ बयानबाज़ विपक्ष बनकर रह जाती है।
विधानसभा: लोकतंत्र का मंच या राजनीतिक नौटंकी?
भाजपा और कांग्रेस के बीच सदन में बहस कम, शोर ज्यादा है।
जनहित के प्रश्न स्थगन की भेंट चढ़ते हैं और गंभीर मुद्दे नारेबाज़ी की धूल में दब जाते हैं।
विधानसभा आज समाधान का नहीं बल्कि राजनीतिक प्रदर्शन का मंच बनती जा रही है।
जनता: सबसे बड़ा पक्ष, सबसे ज्यादा उपेक्षित..
भाजपा सत्ता में रहकर जवाबदेही से बच रही है और कांग्रेस के विपक्ष में रहकर संघर्ष से निर्मित इस दोहरी विफलता की कीमत—बेरोजगार युवा चुका रहा हैऔर कर्ज़ में डूबा किसान चुका रहा है। भ्रष्ट व्यवस्था से जूझता आम नागरिक चुका रहा है
जनता पूछ रही है—“अगर सत्ता भी विफल और विपक्ष भी कमजोर है, तो भरोसा किस पर किया जाए?”
युग क्रांति का सवाल..
मध्य प्रदेश में भाजपा शासन कर रही है, कांग्रेस विरोध कर रही है लेकिन शासन कौन कर रहा है और विरोध किसके लिए हो रहा है ? जब तक भाजपा जवाबदेही स्वीकार नहीं करेगी
और कांग्रेस सड़क से सदन तक संघर्ष नहीं करेगी,
तब तक यह राजनीति नहीं—लोकतंत्र की संगठित उपेक्षा कहलाएगी।
