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एमपीआरडीसी-बरनवाल का अभेद्य किला और सजग प्रहरी

फर्जी आदेश से सेवा में प्रवेश, महिला,सहयोगियों व रिश्तेदारों के नेटवर्क से बना करोड़ों का साम्राज्य..

> यद्यपि संजय कुमार/ बरनवाल एमपीआरडीसी में अपने साम्राज्य का अवैध किला बनाकर अपने सिपहसालारों को पहरेदारी में लगा चुके हों, मगर युग क्रांति के जासूसी तंत्र ने उनके किले में सेंध लगाना शुरू कर दी है।

भोपाल 15 अक्टूबर 2025। मध्य प्रदेश सड़क विकास निगम (एमपीआरडीसी) के एचआर विभाग में उप महाप्रबंधक के पद पर पदस्थ संजय कुमार/ बरनवाल ने विभागीय नियमों की धज्जियाँ उड़ाकर ऐसा जाल बुना कि आज पूरा निगम उनकी पकड़ में प्रतीत होता है।
मात्र ₹2700 मासिक वेतन से नौकरी शुरू करने वाले इस व्यक्ति ने दो दशकों में एक ऐसा “अभेद्य किला” तैयार कर लिया जो सरकारी तंत्र के भीतर निजी सत्ता का प्रतीक बन गया।

फर्जी रिलीविंग ऑर्डर से शुरू हुआ खेल

वर्ष 2004 में बरनवाल ने अपने आईएएस रिश्तेदार के प्रभाव का उपयोग करते हुए शक्कर कारखाना मर्यादित, नारायणपुरा (राघौगढ़) से एक फर्जी रिलीविंग आदेश तैयार कराया। यह आदेश ऐसे अधिकारी द्वारा जारी किया गया जो दूसरे विभाग में प्रतिनियुक्ति देने के लिए अधिकृत नहीं था।फिर भी इस फर्जी दस्तावेज़ के आधार पर बरनवाल ने मध्य प्रदेश सड़क विकास निगम में उपस्थिति दर्ज कराई और वहीं से अपने साम्राज्य की नींव रखी।

वर्ष 2009 में बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स की बैठक में जब कर्मचारियों के स्थायी विलय (Merger) का प्रस्ताव आया तो बरनवाल ने अपने नाम को गुपचुप रूप से “स्थायी कर्मचारियों की सूची” में शामिल करवा लिया। यही से उनके “अभेद्य किले” का असली निर्माण प्रारंभ हुआ।

महिला सहयोगी और अंदरूनी लॉबी की भूमिका

बरनवाल का नेटवर्क केवल कागज़ों तक सीमित नहीं रहा।उनकी एक महिला सहयोगी को हर महत्त्वपूर्ण बैठक, फाइल और ठेके की प्रक्रिया में विशेष भूमिका दी गई। जानकारी के अनुसार, यह महिला बरनवाल की नज़दीकी सहकर्मी थी और दोनों मिलकर विभागीय व्यवस्थाओं पर नियंत्रण बनाए रखते थे। यही कर्मचारी आगे चलकर सूचना–विनिमय की कड़ी बनी _यानी कौन अधिकारी क्या निर्णय ले रहा है, कौन-सी फाइल कहाँ पहुँची, सब कुछ उसी के माध्यम से बरनवाल तक पहुँचता।

इन दोनों की टीमवर्क से बरनवाल ने अपनी पत्नी, बहनोई, भांजे और अन्य रिश्तेदारों के नाम पर कई फर्म और ठेका एजेंसियां रजिस्टर कराईं। इन फर्मों के माध्यम से निगम में मैनपावर सप्लाई, वाहन ठेका, स्टेशनरी और सफाई कार्यों का ठेका लिया जाने लगा। चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों की भर्ती इन्हीं की एजेंसी से होती — यानी, हर व्यक्ति बरनवाल के इशारे पर नियुक्त या हटाया जाता।

ठेकों का आर्थिक साम्राज्य..

बरनवाल ने केवल नियुक्ति ही नहीं, बल्कि आर्थिक तंत्र पर भी कब्जा जमा लिया। वाहनों के ठेके उन्हीं के रिश्तेदारों की एजेंसी के नाम पर दिए गए, मैनपावर एजेंसी उन्हीं की पत्नी के स्वामित्व में पंजीकृत रही और कार्यालयों में सीसीटीवी इंस्टॉलेशन व रखरखाव का ठेका भी उनके ही परिचितों की फर्मों को मिलता रहा।

युग क्रांति की जांच में सामने आए दस्तावेज़ बताते हैं कि कई फर्में एक ही पते से पंजीकृत थीं, और नाम में मामूली बदलाव करके नई एजेंसी दिखाया गया ताकि नियमों की आँखों में धूल झोंकी जा सके। इन ठेकों में पारदर्शिता का नामोनिशान नहीं —न तो किसी ने थर्ड पार्टी ऑडिट कराया, न ही वास्तविक लाभार्थियों की पहचान की गई।

भय, नियंत्रण और चुप्पी का वातावरण..

निगम के भीतर बरनवाल का ऐसा भय था कि कोई कर्मचारी उनके खिलाफ़ बोलने की हिम्मत नहीं करता था। जो विरोध करता, उसे अगले ही दिन अनुबंध समाप्ति या स्थानांतरण की चेतावनी मिल जाती।
उनके ड्राइवर और सीसीटीवी नेटवर्क के ज़रिए हर अधिकारी की गतिविधि पर निगरानी रखी जाती थी। कहा जाता है कि एमडी स्तर के निर्णय भी उनके “सूचना तंत्र” से बाहर नहीं निकल पाते थे।

अब दीवारों में दरारें..

अब जब युग क्रांति के पास फर्जी आदेश, ठेका अनुबंधों और पारिवारिक फर्मों से जुड़ी फाइलें जुड़ चुकी हैं तो यह साफ़ होता जा रहा है कि बरनवाल का साम्राज्य सिर्फ एक व्यक्ति का नहीं बल्कि एक संगठित तंत्र का परिणाम है। जिसे वर्षों की चुप्पी, मिलीभगत और लापरवाही ने इसे फलने-फूलने दिया।

> सवाल अब यह नहीं कि बरनवाल ने यह किला कैसे बनाया, सवाल यह है कि क्या शासन-प्रशासन में अब भी इसे ढहाने का साहस बचा है?

⚡ युग क्रांति विशेष रिपोर्ट:

आगामी अंक में खुलासा —
कौन हैं वे अधिकारी जिन्होंने मौन रहकर इस साम्राज्य को संरक्षण दिया,
और किन दस्तावेजों से खुल रहा है सरकारी मिलीभगत का चेहरा?