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शिक्षक दिवस और भारतीय गुरु परम्परा-डॉ नितेश शर्मा

आज 5 सितंबर है यानी गुरुओं के सम्मान का दिन। इस दिन को देश भर में शिक्षक दिवस के रुप में मनाया जाता है। 1962 में जब डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन भारतीय गणतंत्र के दूसरे राष्ट्रपति बने तब उनके विद्यार्थियों ने उनका जन्मोत्सव मनाने का विचार किया। लेकिन उन्होंने इस अनुरोध को अस्वीकार कर सुझाव दिया कि अगर वे उनके जन्मोत्सव को शिक्षक दिवस के रुप में मनाएं तो ज्यादा खुशी होगी। तभी से इस दिन को शिक्षक दिवस मनाया जाता है। डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन अक्सर कहा करते थे कि शिक्षक का कार्य केवल शिक्षण संस्थानों की परिधि तक ही सीमित नहीं है। समाज व राष्ट्र के गुणसूत्र को बदलने की जिम्मेदारी भी उसके कंधे पर होती है।

जीवन के आरंभ से ही गुरु की महत्ता को रेखांकित किया गया है। संत कबीर कहते हैं कि ‘हरि रुठे गुरु ठौर हैं, गुरु रुठे नहीं ठौर’। अर्थात भगवान के रुठने पर तो गुरु की शरण रक्षा कर सकती है लेकिन गुरु के रुठने पर कहीं भी शरण नहीं मिलेगा। कबीर कहते हैं कि ‘कुमति कीच चेला भरा, गुरु ज्ञान जल होय, जनम-जनम का मोरचा, पल में डाले धोय’ अर्थात कुबुद्धि रुपी कीचड़ से शिष्य भरा है और गुरु का ज्ञान जल है। इनमें इतना सामर्थ्य है कि वे शिष्यों के जन्म-जन्म का अज्ञान पल भर में दूर कर देते हैं। कबीर आगे कहते हैं कि ‘गुरु कुम्हार शिष्य कुंभ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़ै खोट, अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट’ अर्थात मिट्टी के बर्तन समान शिष्य के लिए गुरु कुम्हार की तरह होते हैं। शास्त्रों में गुरु को तीर्थ से भी बड़ा कहा गया है। तीरथ गए तो एक फल, संत मिले फल चार, सदगुरु मिले तो अनंत फल , कहे कबीर विचार। गुरु शिष्य का मार्गदर्शन कर उसके जीवन को उर्जा से भर देता है। लीलारस के रसिकों का दाता भगवान श्रीकृष्ण भी सद्गुरु ही है। भगवान श्रीकृष्ण ने गुरु रुप में शिष्य अर्जुन को संदेश दिया था कि ‘सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज, अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यिा माम शुचः। अर्थात सभी साधनों को छोड़कर केवल नारायण स्वरुप गुरु की शरणागत हो जाना चाहिए। वे उसके सभी पापों को नाश कर देंगे। शोक नहीं करना चाहिए। भारतीय संस्कृति और सभ्यता में कहा गया है कि जिनके दर्शन मात्र से मन प्रसन्न होता है वह परमसत गुरु है। गुरु के बिना न आत्मदर्शन संभव है और न ही परमात्मा दर्शन। जप, तप, यज्ञ और ज्ञान में गुरु का मार्गदर्शन आवश्यक है। किसी भी प्रकार की विद्या हो अथवा ज्ञान वह गुरु से ही प्राप्त होता है। सद्गुरु लोककल्याण के निमित्त पृथ्वी पर अवतार स्वरुप हैं। सभी ग्रंथों में गुरु तत्व की उपादेयता का गान किया गया है। वैदिककालीन महान विदुषियां लोपामुद्रा, घोषा, सिकता, अपाला, गार्गी और मैत्रेयी की रचित ऋचाओं में भी गुरुओं के प्रति सम्मान है। सद्गुरु की महिमा अनंत और अपरंपार है। उपनिषदो और स्मृति ग्रंथों में गुरु की महिमा का खूब बखान किया गया है। ईश्वर की सत्ता में विश्वास न रखने वाले जैन व बौद्ध धर्मग्रंथ भी गुरुओं के प्रति श्रद्धावान हैं। रामायण व महाभारत काल ही नहीं हर युग में गुरुओं ने अपनी गुरुता का लोहा मनवाया है। परवर्ती काल के गुरुओं ने तक्षशिला, नालंदा और विक्रमशीला विश्वविद्यालय को वैश्विक ऊंचाई दी। चीनी यात्री ह्नेनसांग ने अपने विवरण में पांचवीं शताब्दी के महान शिक्षकों-धर्मपाल, चंद्रपाल, गुणपति, स्थिरमति, प्रभामित्र, जिनमित्र, आर्यदेव, दिगनाग और ज्ञानचंद्र इत्यादि का उल्लेख किया है। ये शिक्षक अपने विषयों के साथ-साथ समाज, राज्य, अर्थ, परराष्ट्र, दर्शन व संस्कृति संबंधी विषयों में भी पारंगत, निपुण और ज्ञानवान थे। नागार्जून, असंग, वसुबंधु जैसे महान बौद्ध शिक्षकों की महत्ता को कोई कैसे भूला सकता है जिन्होंने समाज व राष्ट्र को महती दिशा दी। आदिकाल से ही शिक्षक भारतीय शिक्षा, संस्कृति, चिंतन और दर्शन के प्रवाह रहे हैं।