padişahbetpaşacasinograndpashabetcasibom girişcasibom girişcasibom girişcasibom girişkralbetkingroyalmatbet girişmatbet güncel girişmatbet girişmatbet güncel girişholiganbet girişholiganbet girişholiganbet güncel girişnakitbahisnakitbahis girişnakitbahisnakitbahis girişnakitbahisnakitbahis girişmatbetmatbet girişcasibomcasibom girişholiganbet girişholiganbet güncel girişholiganbet girişholiganbet güncel girişcasibomcasibom girişjojobetjojobet girişpusulabet girişholiganbet girişpusulabetpusulabet girişpusulabet güncel girişvdcasinovdcasino girişholiganbetholiganbet girişkonya eskortvaycasinovaycasino girişjojobetjojobet girişjojobetjojobet girişcasibomcasibom girişpusulabetpusulabet girişjojobet girişjojobetjojobetjojobet girişnakitbahisnakitbahis girişnakitbahis girişmatbetjojobetjojobet girişmavibetnakitbahispusulabetholiganbetholiganbet girişjojobetjojobet girişmatbetmatbetpusulabetmatbetmatbetbetpasbetpas girişmatbetjojobetjojobet girişmatbet girişmatbetmatbet girişmarsbahismarsbahis girişromabetromabet girişyakabetyakabet giriş

भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था, सामाजिक गतिशीलता और जाति की अवधारणा: एक ऐतिहासिक पुनरावलोकन- डॉ जगमोहन द्विवेदी

भारत का सामाजिक इतिहास विविधता, समरसता और योग्यता-आधारित सामाजिक संगठन का द्योतक रहा है। वैदिक काल से लेकर आधुनिक युग तक, भारतीय समाज ने कार्य-आधारित वर्ण व्यवस्था, शिक्षा की सर्वसुलभता और सामाजिक गतिशीलता के सिद्धांतों को अपनाया। तथापि, औपनिवेशिक काल में जाति आधारित वर्गीकरण और भेदभाव का जो रूप उभरा, वह भारत की मूल सनातन परंपरा से भिन्न था। यह लेख इस बात का विश्लेषण करता है कि प्राचीन भारत में सामाजिक वर्गीकरण का आधार कर्म (कार्य) था, जन्म नहीं, और कैसे विदेशी शासनकाल—विशेषतः ब्रिटिश काल—में जातिवाद को एक राजनीतिक-सामाजिक औजार के रूप में स्थापित किया गया।
भारतीय समाज को प्रायः जाति और वर्ण व्यवस्था के संदर्भ में परिभाषित किया जाता है। किंतु इतिहास का गहन अध्ययन यह स्पष्ट करता है कि आरंभिक वैदिक और उत्तरवैदिक समाज में वर्ण व्यवस्था का आधार कर्म (कार्य और योग्यता) था, न कि जन्म। शिक्षा, शासन, और आध्यात्मिकता में सभी वर्गों की सहभागिता थी। यह लेख भारतीय इतिहास के विभिन्न कालखंडों—वैदिक, प्राचीन, मध्यकालीन और औपनिवेशिक—का विश्लेषण प्रस्तुत करता है ताकि यह स्पष्ट किया जा सके कि जातिगत विभाजन की जड़ें भारत की मौलिक सामाजिक संरचना में नहीं थीं, बल्कि यह औपनिवेशिक काल की देन थी।

वैदिक एवं महाकाव्य काल: योग्यता आधारित सामाजिक संरचना

महाभारत और रामायण जैसे ग्रंथों के उदाहरण इस बात को पुष्ट करते हैं कि सामाजिक प्रतिष्ठा जन्म से नहीं, बल्कि कार्य और आचरण से प्राप्त होती थी।

भीष्म ने व्यक्तिगत प्रतिज्ञा से ब्रह्मचर्य स्वीकार किया, न कि किसी सामाजिक दबाव से।

सत्यवती, जो एक मछुआरे की पुत्री थीं, हस्तिनापुर की रानी बनीं।

वेदव्यास, जो सत्यवती के पुत्र थे, मछुआरे समुदाय से उत्पन्न होकर “महर्षि” बने और महाभारत की रचना की।

विदुर, एक दासीपुत्र, हस्तिनापुर के महामंत्री बने—उनकी विदुर नीति आज भी नीति-शास्त्र का उत्कृष्ट ग्रंथ मानी जाती है।

हिडिंबा (वनवासी) से भीम का विवाह तथा निषादराज का राम के साथ मैत्री, उस समय की सामाजिक समानता का परिचायक है।

महर्षि वाल्मीकि, जिन्हें समाज आज वनवासी पृष्ठभूमि से जोड़ता है, ने रामायण जैसा आदर्श ग्रंथ रचा और राजकुमार लव-कुश के गुरु बने।

इन उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि वैदिक काल में किसी जातिगत शोषण की अवधारणा नहीं थी। सामाजिक पद प्राप्ति का मूल आधार कर्म और योग्यता थी।
प्राचीन भारत में सामाजिक गतिशीलता और शासन व्यवस्था

प्राचीन भारत में कई ऐसे शासक हुए जो जन्म से निम्न वर्ण या वंचित समुदायों से संबंधित थे, परंतु अपने कर्म और नेतृत्व के बल पर देश के सर्वोच्च पदों तक पहुँचे।

नंद वंश की स्थापना महापद्मनंद ने की, जो नाई समुदाय से थे।

मौर्य वंश की नींव चंद्रगुप्त मौर्य ने रखी, जो साधारण मोरपाल परिवार से थे।

चाणक्य (कौटिल्य), एक ब्राह्मण, ने सामाजिक योग्यता के आधार पर चंद्रगुप्त को सम्राट बनाया—यह गुरु-शिष्य संबंध सामाजिक समरसता का आदर्श है।

गुप्त वंश, जिनका मूल पेशा घोड़ों का व्यापार था, ने भारत को “स्वर्ण युग” प्रदान किया।

इन तथ्यों से यह सिद्ध होता है कि भारत में शासक और विद्वान बनने के लिए जन्म नहीं, बल्कि योग्यता ही निर्णायक थी।

मध्यकालीन भारत: धार्मिक सह-अस्तित्व और सामाजिक परिवर्तन

मध्यकालीन काल (1100–1750 ई.) में भारत पर मुस्लिम शासन की दीर्घ अवधि रही। इस काल में भी विभिन्न सामाजिक पृष्ठभूमियों से आए व्यक्तियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

मराठा शासन में बाजीराव पेशवा (ब्राह्मण) ने होलकर (चरवाहा समुदाय) और गायकवाड़ (ग्वाला समुदाय) को क्षेत्रीय शासक बनाया।

अहिल्याबाई होलकर ने अपने शासनकाल में मंदिरों, गुरुकुलों और जनसेवा संस्थाओं की स्थापना की।

मीरा बाई, जो राजपूत कुल की थीं, के गुरु संत रविदास (चर्मकार) थे, जबकि रविदास के गुरु स्वामी रामानंद (ब्राह्मण) थे—यह भारतीय अध्यात्म में जातिगत सीमाओं के अभाव को दर्शाता है।

औपनिवेशिक काल: जातिवाद का राजनीतिकरण

ब्रिटिश शासन (1800–1947) के दौरान “Divide and Rule” नीति के तहत जाति को प्रशासनिक और राजनीतिक औजार के रूप में प्रयोग किया गया।
अंग्रेज अधिकारी Nicholas Dirks ने अपनी पुस्तक “Castes of Mind” (2001) में उल्लेख किया कि “जाति” को ब्रिटिश अधिकारियों ने जनगणना, भूमि व्यवस्था और शासन नियंत्रण के लिए औपचारिक ढांचे में गढ़ा।
इस प्रक्रिया में भारतीय समाज की पारंपरिक सामाजिक गतिशीलता को कठोर वर्ग-रेखाओं में बाँध दिया गया।

स्वतंत्र भारत में सामाजिक समानता और अवसरों की समान उपलब्धता का संविधानिक प्रावधान—अनुच्छेद 14 से 17—भारतीय परंपरा की उसी मूल भावना को पुनर्स्थापित करता है, जो योग्यता और समरसता पर आधारित थी। आज के उदाहरण—जैसे योगी आदित्यनाथ, उमा भारती आदि—यह सिद्ध करते हैं कि भारतीय समाज में पुनः योग्यता आधारित नेतृत्व स्थापित हो रहा है।

इतिहास साक्षी है कि भारत की सामाजिक संरचना मूलतः समरस, योग्यता-प्रधान और कार्याधारित रही है। जातिवाद, जैसा आज दिखाई देता है, भारतीय परंपरा की उपज नहीं, बल्कि औपनिवेशिक काल की एक कृत्रिम निर्मिति है।
भारतीय समाज का वास्तविक स्वरूप “वसुधैव कुटुम्बकम्” और “सर्वे भवन्तु सुखिनः” जैसी मान्यताओं पर आधारित रहा है।
अतः आवश्यक है कि भारतीय नागरिक इस सनातन सामाजिक दर्शन पर गर्व करें, भेदभाव से दूर रहें और समाज में पुनः समानता, करुणा और ज्ञान की संस्कृति को प्रतिष्ठित करें।

ENAK4D