hacklink al
waterwipes ıslak mendilasetto corsa grafik paketijojobetjojobet girişjojobetjojobet girişjojobetjojobet girişpusulabetjojobetjojobet girişjojobetjojobet girişpusulabetjojobetjojobet girişbets10padişahbetpadişahbet girişjojobetjojobet girişholiganbetmatbetmatbet girişjojobetjojobet girişjojobet girişjojobet girişjojobetcasibomholiganbetholiganbet giriş

आपातकाल: लोकतंत्र का काला अध्याय : हितानंद शर्मा

आंतरिक अशांति का बहाना बनाकर 25 जून 1975 की आधी रात को देश पर थोपे गए ‘आपातकाल’ को 50 वर्ष पूरे हो रहे हैं। भारत की जनता ने तब तानाशाही के विरुद्ध स्वकतंत्रता की एक और लड़ाई लड़ी थी। इस बार लड़ाई अपने ही दिग्भ्रूमित सत्तालोलुप नेताओं से थी, जिसमें देश एक बार फि‍र विजेता बनकर उभरा था। पिछले कुछ वर्षों से कुछ विपक्षी नेता अक्सर संविधान की प्रति हाथ में लेकर भाषण देते दिखाई देते रहे हैं। बात-बात में संविधान की दुहाई देने का क्रम चल रहा है। भारत के स्वरस्थि और मजबूत लोकतांत्रिक वातावरण में भी ‘लोकतंत्र व संविधान बचाने’ के लिए सभाओं के प्रहसन चल रहे हैं। आपातकाल के 50 वर्ष पूरे होने पर यह अवसर है जब मुड़कर इतिहास को फिर से देखने की आवश्यकता है।
आपातकाल का निर्णय किसी युद्ध या आंतरिक विद्रोह के कारण नहीं बल्कि एक प्रधानमंत्री के लोकसभा चुनाव रद्द होने और अपनी सत्ता बचाने की हताशा में लिया गया राष्ट्रर विरोधी निर्णय था। कांग्रेस पार्टी ने आपातकाल के इस क्रूरकाल में न केवल संवैधानिक ढांचे को कुचला बल्कि उसके द्वारा प्रेस की स्वतंत्रता, न्यायपालिका की निष्पक्षता और नागरिकों के मौलिक अधिकारों को भी भंग किया गया।
1971 के आम चुनावों में श्रीमती इंदिरा गांधी ने रायबरेली से जीत तो हासिल की लेकिन उनके निकटतम उम्मी दवार राजनारायण ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर चुनाव में भ्रष्टाचार और सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग के आरोप लगाए। इधर देश की अर्थव्यवस्‍था खराब स्थिति में थी। आर्थिक विकास दर केवल 1.2% थी। देश का विदेशी मुद्रा भंडार मात्र 1.3 बिलियन अमेरिकी डॉलर था (आज 640 बिलियन अमेरिकी डॉलर है)। महंगाई चरम पर थी। मुद्रास्फीति की दर 20% से भी ज्यादा थी। देश की 50% से ज्यादा जनता गरीबी रेखा के नीचे थी और जबरदस्त बेरोजगारी थी। भ्रष्टारचार की हालत ऐसी थी कि लाखों रुपए के घोटाले करने वाले मंत्री एवं सरकार से जुड़े नेताओं की रहस्म्य ढंग से हत्या हो रही थी। बिहार और गुजरात में छात्रों के नेतृत्व में नवनिर्माण आंदोलन चल रहा था। 8 मई 1974 को जॉर्ज फर्नांडि‍स के नेतृत्चं में देशव्या पी रेल हड़ताल हो चुकी थी। बिहार, गुजरात में राष्ट्र पति शासन के बाद कांग्रेस चुनाव हार चुकी थी। इस सबसे कांग्रेस की केंद्र सरकार परेशान हो चुकी थी।
12 जून 1975 को न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा ने अपने निर्णय में इंदिरा गांधी की जीत को अवैध करार दिया और उन्हें 6 साल तक चुनाव लड़ने से प्रतिबंधित कर दिया। इस ऐतिहासिक निर्णय के बाद इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री नहीं रह सकती थीं। उनकी कुर्सी को गंभीर राजनीतिक संकट खड़ा हो गया। तेजी से बढ़ती राजनीतिक अस्थिरता से घबराकर इंदिरा गांधी ने आंतरिक अशांति का बहाना बनाकर मंत्रिपरिषद् की अनुसंशा के बगैर ही राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से अनुच्छेद 352 के तहत देश में आपातकाल लगाने की सिफारिश की, जिसे राष्ट्रपति ने 25 जून 1975 की आधी रात को मंजूरी दे दी।
आज संविधान की प्रतियां हाथ में लहराने का नाटक करने वालों को यह स्मदरण रखना ही होगा कि आपातकाल वास्तथव में भारतीय लोकतांत्रिक व्यहवस्थाण को कुचलने का प्रयास था। यहय संविधान की हत्याा की सोची-समझी रणनीति थी। इंदिरा गांधी ने ‘आंतरिक अशांति’ की आड़ लेकर संविधान के अनुच्छेद 352 का दुरुपयोग किया। जबकि न तो उस समय बाहरी आक्रमण या युद्ध की स्थिति थी, न विद्रोह ही हुआ था। आपातकाल किसी राष्ट्रीय संकट का परिणाम नहीं था, बल्कि यह एक डरी हुई प्रधानमंत्री की सत्ताा बचाने की जिद थी।
संविधान की शपथ लेकर इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री बनी थीं, किन्तु उसी संविधान की आत्मा को कुचलते हुए एक झटके में उन्होंंने लोकतंत्र को तानाशाही में बदलकर रख दि‍या और पूरी शासन व्य‍वस्था को कठपुतली की तरह उपयोग किया। कांग्रेस सरकार ने विधायिका और न्या यपालिका को बंधक बनाकर सत्ता् के आगे घुटने टेकने को विवश कर दिया था। प्रेस की स्वकतंत्रता पर कुठाराघात किया गया। बड़े-बड़े समाचार पत्र संस्थानों की बिजली काट दी गई। समाचार पत्रों के प्रकाशन पर सेंसरशिप लगा दी गई और पत्रकारों को जेल में डाल दिया गया।
21 महीने के आपातकाल का क्रूर समय नागरिकों पर हुए अत्याचारों की दारुण गाथा है। केंद्र के साथ-साथ अधिकतर राज्यों में कांग्रेस की सरकार थी। ऐसे में जहां विरोध में स्वर उठे वहां क्रूरता के साथ दमन किया गया। लोकतंत्र में आस्था रखने वाली हर आवाज को दबाया गया। मीसा जैसे काले कानून में लगभग एक लाख लोगों को बिना किसी सुनवाई के जेलों में डाला गया। जयप्रकाश नारायण, अटलबिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, राजनाथ सिंह जैसे अनेक वरिष्ठ विपक्षी नेताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं, पत्रकारों यहां तक कि छात्रों तक को जेल में बंद करा दिया। जेलों में अमानवीय यातनाएं दी गईं। बीमार होने पर दवाएं तक नहीं दी गईं। महिला बंदियों के साथ असम्मानजनक और अमानवीय व्यवहार किया गया। आरएसएस, जनसंघ, एवीबीपी और कई अन्य संगठनों पर प्रतिबंध लगाकर कांग्रेस द्वारा कठोर दमन चक्र चलाया गया।
‘इंदिरा इज इंडिया, इंडिया इज इंदिरा’ जैसे नारों से आपातकाल के समय में कांग्रेस ने देश को व्यक्ति पूजा और परिवारवाद की प्रयोगशाला बना दिया। किसी भी संवैधानिक पद पर और निर्वाचित जनप्रति‍निधि न होने पर भी संजय गांधी देश की नीतियों पर निर्णय ले रहे थे। वह आपातकाल में सत्ता का वास्त‍विक केंद्र बन चुके थे। देश के नागरिकों पर आपातकाल थोपने वाली कांग्रेस आज भी इसी परिवारवाद के सीमित सांचे में सिमटकर रह गई है। इंदिरा गांधी की तानाशाही का सबसे भयावह चेहरा यह था कि उन्‍होंने अपने पुत्र के माध्‍यम से सत्ता को वंशवाद की जकड़ में पूरी तरह से कैद कर लिया था। यह सत्ता लोलुपता ही थी कि कांग्रेस ने लोकसभा का कार्यकाल 5 से बढ़ाकर 6 वर्ष कर दिया।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उस समय साधारण कार्यकर्ता हुआ करते थे और उन्हीं की तरह लाखों स्वयंसेवकों ने आपातकाल विरोधी आंदोलन जारी रखा। रातों-रात रेलों में आपातकाल विरोधी पर्चे बांटे, मीसाबंदियों के परिवारों की देखरेख की, भूमिगत रहते हुए आंदोलन की गति बनाए रखी और कांग्रेस की सच्चायई घर-घर तक पहुंचाई। अंततः जनाक्रोश और नागरिकों के बढ़ते दबाव के कारण जनवरी 1977 में चुनावों की घोषणा हुई और मार्च 1977 में हुए चुनावों में जनता पार्टी को जबरदस्त समर्थन मिला। इंदिरा गांधी स्वयं रायबरेली से चुनाव हार गईं। लोकतंत्र फिर प्रतिष्ठित हुआ।
आपातकाल इतिहास की एक राजनीतिक घटना मात्र नहीं हैं, बल्कि उस दूषित मानसिकता का प्रमाण है, जो संविधान और लोकतंत्र को केवल अपनी सत्ता पाने और बचाए रखने के लिए इस्तेमाल करती है। लोकतंत्र के साथ विश्वांसघात करने के बाद भी कांग्रेस ने न तो कभी माफी मांगी और न ही कोई पश्चाताप ही प्रकट किया।
बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर ने जनता को अधिकार देने के लिए जिस संविधान का निर्माण किया, कांग्रेस ने उसी को हथियार बनाकर जनता के अधिकारों को छीना। स्वतंत्रता के बाद ऐसा पहली बार हुआ जब सरकार ने राष्ट्र के शत्रु नहीं राष्ट्र की जनता को ही बंदी बना लिया। आपातकाल लोकतंत्र का काला अध्याय है। आपातकाल के समय को स्मरण करना इसलिए आवश्यक है, ताकि भविष्य में संविधान और लोकतंत्र को सुरक्षित रखा जा सके, क्योंकि यह प्रत्येक भारतीय का नैतिक दायित्व भी है।

*लेखक भारतीय जनता पार्टी मध्य प्रदेश के प्रदेश संगठन महामंत्री हैं