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बिहार में जातियों की गिनती से निकला जिन्न, किसे फायदा-किसे घाटा?

संसद के विशेष सत्र में जब 22 सितंबर को राजद (RJD) सदस्य मनोज झा ने ओम प्रकाश वाल्मीकि की कविता पढ़ते हुए कहा था कि अपने अंदर के ठाकुर को मारो. तब एक नजर में यह सामान्य कविता लगी थी कि खेत ठाकुर का. किंतु उसी के बाद बिहार में ठाकुरों (राजपूतों) के अंदर उबाल आना शुरू हो गया था. बिहार में राजद के ही विधायक चेतन आनंद ने इसे राजपूत स्वाभिमान का अपमान बताया था. चेतन आनंद बाहुबली नेता आनंद मोहन सिंह के बेटे हैं.

नतीजन बिहार में फिर से एक दूसरी तरह के जाति-युद्ध (ठाकुर बनाम ब्राह्मण) के आसार दिखने लगे थे. कुछ लोगों का आरोप था कि मनोज झा बिना लालू यादव के इशारे पर संसद में ऐसी बात कहने से रहे. चूंकि मनोज झा ब्राह्मण हैं, इसलिए जान-बूझ कर उन्होंने कहा था कि अपने अंदर के ठाकुर को मारो. उस समय बाहुबली ठाकुर नेता आनंद मोहन सिंह के बेटे चेतन आनंद का यह आरोप बेतुका लगा था. लेकिन आज बिहार में जाति जनगणना की रिपोर्ट जारी होते ही आरोप लगाने वालों की बात सच प्रतीत होने लगी है.

बिहार में हिंदुओं की आबादी में नम्बर एक पर यादव (14.2) हैं तो दो पर कुशवाहा (4.1) हैं तथा तीसरे स्थान पर ब्राह्मण (3.67) हैं. राजपूतों की आबादी महज 3.46 प्रतिशत है. संभव है, राजद नेतृत्व कोई नया गठजोड़ बनाने की तैयारी में हों. यूं भी पिछले लोकसभा चुनाव में 55 फीसद ठाकुरों ने भाजपा को वोट दिया था और 52 प्रतिशत ब्राह्मणों ने. अर्थात ब्राह्मण भाजपा के छाते में पूरी तरह नहीं है. उसे तोड़ा जा सकता है. हो सकता है, लालू यादव समझ गए हों कि प्रदेश में ब्राह्मण और भूमिहार मिलकर एक बड़ी संख्या बनाते हैं.

क्या मुसलमानों में भी अगड़ा-पिछड़ा खेल होगा?
जातियों की गिनती का यह खेल एक नए जातीय तनाव की बुनियाद है. जाति के लिहाज से यादवों की संख्या 14.26 प्रतिशत है, यह मुसलमानों के बाद की सबसे बड़ी संख्या है, लेकिन मुसलमानों में भी अगड़ा-पिछड़ा खेल होगा तो संख्या बंट जाएगी. यूं भी आज की हालत में मुसलमान जैसे ही एकमुश्त होगा, बाकी सारी हिंदू जातियां एक होकर उसके विरुद्ध खड़ी हो जाएंगी. बिहार में कुल हिंदू आबादी 81.99 फ़ीसद निकली है. इसलिए यह कहना सरलीकरण होगा कि लालू यादव और तेजस्वी यादव की इस खेल में जीत हुई है.

बिहार में अब एक नए गृह कलह का अंदेशा है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कुर्मी हैं, और प्रदेश में उनकी बिरादरी की संख्या मात्र 2.87 प्रतिशत है. सीधा निशाना उन पर लगेगा कि इतनी कम संख्या वाली जाति का नेता पिछले 20 वर्ष से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर कैसे जमा है. प्रदेश में 1.6 पर्सेंट की संख्या वाली नाई जाति के कर्पूरी ठाकुर दो बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं और महज 0.6 फीसद वाले कायस्थ दो बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं. पहले कृष्ण बल्लभ सहाय दो अक्टूबर 1963 से 5 मार्च 1967 तक, फिर महामाया प्रसाद सिन्हा 5 मार्च 1967 से 28 जनवरी 1968 तक.

प्रदेश में पिछड़ी जाति के लोगों की संख्या 27.12 प्रतिशत
अब हर बार मुख्यमंत्री चयन में संख्या बल देखा जाया करेगा. नतीजा यह भी होगा, कि संख्या बल से बहुसंख्यक जाति से कोई उपयुक्त मुख्यमंत्री न मिले तब क्या होगा. आजादी के बाद जो जनगणना 1951 में हुई, उसमें जातिवार बंटवारा करने पर रोक लगा दी गई थी. अब यह बिहार में पुनः शुरू हो गया है. इससे कुछ जातियों के लोग खुश भले हो जाएं, लेकिन बिहार जैसे पिछड़े प्रदेश में यह प्रयोग बहुत लाभकारी नहीं होने वाला.

बिहार में जाति आधारित जनगणना से यह पता चल गया है कि प्रदेश में पिछड़ी जाति के लोगों की संख्या 27.12 प्रतिशत है. अति पिछड़ी जातियों के लोग 36 परसेंट हैं. दूसरी तरफ अगड़ी अथवा सामान्य जातियों का परसेंटेज 15.52 प्रतिशत है तथा एससी-एसटी का प्रतिशत 21.39 है. धर्म के आधार में सबसे अधिक संख्या हिंदुओं की है, कुल 81.99 प्रतिशत. इसके बाद मुसलमान 17.7 पर्सेंट. शेष में ईसाई, सिख, बौद्ध और जैन हैं.

प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने जब मंडल आयोग की सिफारिशें लागू की थीं, तब भी पिछड़ों की संख्या 52 प्रतिशत आंकी गई थी और इसी अनुमान के आधार पर पिछड़ी जातियों के लिए केंद्रीय नौकरियों में 27 परसेंट आरक्षण का प्रावधान किया गया था, जो 51 प्रतिशत सीटों को अनारक्षित रखा गया था, उसके पीछे आशय ये सीटें उन सभी जातियों के उम्मीदवारों से ये सीटें भरनी थीं जो समृद्ध हो चुके थे. क्योंकि पिछड़ी जाति की संपूर्ण आबादी तो आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़ी नहीं थी.

हिंदुत्व के जादू से भी अब कोई अछूता नहीं
बिहार में लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहे और पिछड़ों की राजनीति के सूत्रधार लालू यादव अच्छी तरह जानते थे कि प्रदेश में यादवों की संख्या 14 प्रतिशत से कम नहीं है और मुस्लिम आबादी भी 17-18 के आसपास है. इसलिए उन्होंने मुस्लिम यादव MY समीकरण साधा था. आज उसकी पुष्टि तो हुई, लेकिन अब यह समीकरण बिखर गया है, क्योंकि हर जाति के नेतृत्व को उसकी ताकत का अंदाजा लग गया है. अब अकेले 14 और 17 का गठजोड़ काम नहीं करने वाला. छोटी संख्या वालों को भी पता चल गया है कि छोटी-छोटी संख्याएं भी बड़ी हो जाती हैं. हिंदुत्व के जादू से भी अब कोई अछूता नहीं. धर्म अब सबके लिए अपरिहार्य होने लगा है. किसी मंदिर में जा कर देखिए, वहां पांडेय, मिश्र, तिवारी, सिंह और गुप्ता कम मौर्य, कुशवाहा, सैनी लोग अधिक दिखेंगे. इसलिए अब धर्म की हांक बड़ी हो गई है.

यह भी कोई दबी-ढकी बात नहीं रही कि पिछड़ी जातियों के आरक्षण का लाभ किन-किन जातियों को मिला है. यादव-कुर्मी ही इसके सबसे बड़े लाभार्थी रहे हैं क्योंकि इन्हीं जातियों के बीच से पिछड़ों की राजनीति करने वाला नेतृत्व उभरा. इन्हीं जातियों को आजादी के बाद सर्वाधिक लाभ मिला. आजादी के बाद से ब्राह्मणों और कायस्थों ने सबसे पहले गांव छोड़ा. राजपूत और भूमिहार गांवों में रहे किंतु अपने अतीत और परंपरा के अनुसार वे शारीरिक श्रम से दूर रहे. उधर जमींदारी उन्मूलन और कृषि सुधारों ने उनके पास खेती का रकबा कम कर दिया. इसका लाभ मध्यवर्ती किसान जातियों, यादवों और कुर्मियों को मिला. उन्होंने खुद श्रम कर न सिर्फ उपज को बढ़ाया बल्कि कुछ और काम भी शुरू किए. जैसे दूध-दही शहर जाकर बेचने से लेकर लोकल ट्रांसपोर्ट को अपने कब्जे में लिया.

नतीजा सामने है. इन जातियों के पास जब पैसा आया तो शिक्षा के प्रति इनकी ललक बढ़ी. शिक्षा और पैसे से राजनीति को भी इन्होंने अपने हाथों में लिया. 1967 के चुनावों से जो दौर शुरू हुआ वह 1990 आते-आते पुख्ता हो गया. राजनीति पूरी तरह पिछड़ी जातियों के हाथों में आ गई. इसके बाद से केंद्र में सरकार कोई बनाए, पिछड़ों को अनदेखा करना मुश्किल था. 2014 में तो प्रधानमंत्री का पद जब नरेंद्र मोदी को मिला तो उसकी एक वजह उनका पिछड़ी जाति से होना भी था. मगर इसके बाद से पिछड़ी जातियों को एक नया धरातल मिला, वह था, हिंदू धर्म में उनकी दखल का. धर्म एक इतनी मजबूत डोर है कि उसे यदि पकड़ लिया तो छोड़ना मुश्किल. यही कारण है कि आज पिछड़ों की राजनीति में पैठ है और धर्म में भी. अब किसी भी विधा में वे पीछे नहीं रहे.

लोकसभा चुनाव से पहले एक और बम फूटेगा!
मगर यह बात हुई उन पिछड़ी जातियों की जो खुद को पिछड़ा कहने के बावजूद अगड़ी थीं. एक तरह से पिछड़ों की सवर्ण इसीलिए दो अक्टूबर 2017 को दिल्ली हाई कोर्ट की रिटायर्ड जस्टिस जी. रोहिणी की अध्यक्षता में रोहिणी आयोग का गठन हुआ था. इस आयोग का गठन अनुच्छेद 340 के तहत हुआ था. मालूम हो कि इस अनुच्छेद के तहत दो ही आयोग पहले बने हैं. पहला काका कालेलकर आयोग और दूसरा मंडल आयोग. दोनों का मकसद सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों के लिए आरक्षण की सिपारिशें करनी थीं. अब रोहिणी आयोग को पता करना था कि मंडल आयोग की सिफारिशों के आधार पर किए गए आरक्षण का लाभ हर पिछड़ी जाति को मिला या नहीं? यह आयोग बहुत अहम है और उसने अपनी सिफारिशें राष्ट्रपति को सौंप दी हैं.

पिछड़ी जातियों की ताकत को कोई नकार नहीं सकता. इसलिए आज कांग्रेस भी जाति आधारित जनगणना के पक्ष में है, जिसने ही इस पर रोक लगाई थी. ऐसे में बिहार ने पहल कर एक उदाहरण प्रस्तुत किया है. अब केंद्र सरकार के हाथों में है कि वह रोहिणी आयोग का पिटारा कब खोलती है. खुलेगा यह 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले ही. तब एक और बम फूटेगा!