भारत सरकार ने आख़िरकार ऐतिहासिक निर्णय लेते हुए आगामी जनगणना में जातिगत गणना को शामिल करने की घोषणा कर ही दी। इस घोषणा के साथ एक महत्वपूर्ण सवाल अनुत्तरित रह गया है कि जनगणना और इसके साथ होने वाली जातिगत गणना आखिर कब शुरू होंगी? समय सीमा की यह अस्पष्टता न केवल प्रशासनिक चुनौतीयों को उजागर करती है.बल्कि राजनीतिक और सामाजिक बहस को भी हवा दे रही है।
चूँकि इसी तरह महिला आरक्षण का निर्णय होने के बाद क़ानून भी पास हो रखा है लेकिन क़ानून लागू होने की समय सीमा अनिश्चित है। संविधान के अनुच्छेद 246के मुताबिक जनगणना संघ का विषय है और संविधान की सातवीं अनुसूची के क्रम संख्या 69 पर सूचीब्रद्ध है। जनगणना अधिनियम, 1948स्वतंत्र भारत में जनगणना के संचालन के लिए कानूनी आधार बनता है। केंद्र सरकार के जातिगत जनगणना के इस ऐतिहासिक निर्णय के बावजूद इसकी समय सीमा को लेकर कई अनिष्तताएं है। जिस पर सरकार को स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए।और मेरा व्यक्तिगत सुझाव है कि एक कालम ऐसा हो जिसमें देशहितेषीओं और देश विरोधियों के नाम गणना में आना चाहिए.और रक्तदान के लिए ब्लड ग्रुप का कालम भी होना चाहिए साथ में अंगदान करने वालों का कालम होना चाहिए एवं सभी जातियों के पैतृक व्यवसाय भी दर्शाना चाहिए। 2025 के केंद्रीय बजट में जनगणना के लिए पर्याप्त धनराशि का प्रावधान क्यों नहीं किया गया ? यह प्रकिया को और विलंबित करेगा। जातिगत जनगणना के लिए व्यापक संसाधनों और प्रशिक्षित कर्मचारियों के लिए कोई व्यवस्था नहीं की गईं ?जातिगत जनगणना एक जटिल प्रक्रिया है क्योंकि भारत में हजारों जातियाँ और उपजातियां है। डेटा संग्रह, सत्यापन और विश्लेषण में समय लगेगा। जातिगत जनगणना 1931यानी अखंड भारत में अंग्रेजी सत्ता ने कराई थी। भारत में जनगणना की शुरआत अंग्रेजी हुकूमत के दौर में सन 1872में हुई थी और 1931तक हुई हर जनगणना को भी दर्ज किया गया। आजादी के बाद सन 1951में ज़ब पहली बार जनगणना कराई गईं तो तय हुआ कि अब जाति से जुड़े आंकड़े नहीं जुटाए जायेंगे। स्वतंत्र भारत में हुई जनगणनाओं में केवल अनुसूचित जाति और जनजाति से जुड़े डेटा को ही पब्लिश किया गया। 2011में मनमोहन सरकार ने जातिवार जनगणना अवश्य कराई लेकिन इसमें इतनी जटिलतायें एवं विसंगतियाँ मिली कि उसके आंकड़े सार्वजनिक नहीं किये गए।
जातिगत जनगणना का भारतीय राजनीति और समाज व्यवस्था पर व्यापक एवं दूरगामी प्रभाव पढ़ेगा। कांग्रेस और विपक्ष जातिगत जनगणना कराने के फैसले का श्रेय लेना चाहते है जबकि नेहरू से लेकर नरसिंह राव तक ने इसकी जरूरत क्यों नहीं समझी ?
जातिगत जनगणना सामाजिक न्याय और समावेशी विकास की दिशा में एक क्रन्तिकारी कदम हो सकता है। जनगणना में दलितों और आदिवासियों की संख्या तो गिनी जाती है और इन्हे राजनीतिक आरक्षण भी मिला हुआ है लेकिन पिछडी और अति पिछडी जातियों के कितने लोग देश में है और इनकी गिनती क्यों नहीं होती ?इसका कारण यह माना जा सकता है कि जातिगत डेटा सामाजिक विभाजन को बढ़ावा दें सकता है।
विभिन्न राजनैतिक दल अमुक ~अमुक जातियों का नेतृत्व करने के लिए केवल जाने ही नहीं जाते बल्कि ऐसा दावा भी करते है इसलिए जातिआधारित जनगणना का लाभ है तो हानि भी है. इससे बेहतर और कुछ नहीं कि जातिगत जनगणना वंचितों ~पिछडो के उत्थान में सहायक बनें और सभी राजनैतिक दलों से निवेदन है कि जातिगत जनगणना में विभाजन और देश की एकजुटता प्रभावित ने करो।
लेखक -सत्येंद्र तुलसीराम साहू