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भाजपा में तोमर और सिंधिया के बीच गुटबाजी गहराई, ग्वालियर से सागर तक वर्चस्व की जंग तेज

मोदी के “कांग्रेस मुक्त” अभियान पर उठे सवाल – क्या भाजपा अब “कांग्रेस युक्त” बन चुकी है?

बृजराज एस तोमर भोपाल। मध्यप्रदेश भाजपा में अंदरूनी खींचतान इन दिनों चरम पर है। ग्वालियर–चंबल अंचल में विधानसभा अध्यक्ष नरेंद्र सिंह तोमर और केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीच वर्चस्व की लड़ाई खुलकर सामने आ चुकी है। नरेंद्र तोमर के कार्यक्रम में न तो सिंधिया समर्थक शामिल होते हैं और न ही सिंधिया की बैठकों में तोमर समर्थक की उपस्थिति देखी जा रही है।

काफी हद तक यही स्थिति सागर में गोविंद सिंह राजपूत और भूपेंद्र सिंह के बीच बनी हुई है। पार्टी के भीतर चल रही यह रस्साकशी न केवल क्षेत्रीय समीकरणों को प्रभावित कर रही है बल्कि भाजपा की कांग्रेस मुक्त नीति पर भी सवाल खड़े कर रही है।

वर्चस्व की जंग ग्वालियर–चंबल में..

पार्टी सूत्रों की माने तो ग्वालियर और सागर अंचल में भाजपा दो खेमों में बंटती दिखाई दे रही है। एक ओर नरेंद्र सिंह तोमर के समर्थक हैं दूसरी ओर सिंधिया के। दोनों नेताओं के कार्यक्रमों में एक-दूसरे के गुट की अनुपस्थिति अब आम बात बन गई है। गोविंद सिंह राजपूत सिंधिया खेमे के मंत्री हैं और भूपेंद्र सिंह पूर्व मंत्री एवं भाजपा के कद्दावर नेता हैं। ग्वालियर क्षेत्र में केंद्रीय मंत्री सिंधिया की बढ़ती सक्रियता से जहां एक ओर तोमर समर्थक असहज हैं तो वहीं दूसरी ओर विधानसभा अध्यक्ष तोमर अपना राजनीतिक प्रभाव सीमित होना महसूस कर रहे है।

2020 के सियासी सी घटनाक्रम से बदले समीकरण

कांग्रेसयुक्त भाजपा

राज्य की राजनीति में यह खींचतान साल 2020 की उस घटना के बाद शुरू हुई जब तत्कालीन कांग्रेस नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने समर्थक 18 विधायकों के साथ भाजपा में शामिल हुए और कमलनाथ सरकार गिर गई। सत्ता परिवर्तन के बाद भाजपा में दो धाराएँ दिखाई देने लगीं-
एक मूल भाजपा और दूसरी सिंधिया भाजपा। पार्टी और आरएसएस की तमाम पाठशालाओं के बावजूद न तो सिंधिया खेमे की भाजपा आज तलक पार्टी को पूरी तरह से आत्मसात कर पाई है और न ही मूल भाजपाई इन्हें पूरी तरह से स्वीकार कर पाए हैं। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि इसी दौर से भाजपा के भीतर दोहरी मानसिकता ने जन्म लिया जिसका विकृत स्वरूप आज वर्चस्व के संघर्ष का रूप ले चुका है।

भाजपा का वैचारिक संतुलन डगमगाया..

राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ अभियान ने पार्टी की मूल विचारधारा को नया आयाम तो दिया लेकिन इस मुहिम में भाजपा ने खुद को “कांग्रेस युक्त” भी बना लिया। इस नई भाजपा की सत्ता विस्तार नीति में अब अन्य दलों से आने वाले नेताओं को बिना विचारधारात्मक शर्तों के शामिल किया जाने लगा है। भले ही भाजपा में शामिल होने से पहले वह कितना भी अनैतिक अथवा भ्रष्ट क्यों ना हो। इसी के चलते पार्टी के भीतर वैचारिक असंतुलन और नेतृत्व संघर्ष बढ़ रहा है।

भाजपा अपनी तुलना पवित्र और दिव्य गंगा से करते हुए यह कहती है भाजपा में शमिल होने सभी तरह के पाप धुल जाते हैं। भाजपा की तुलना “मां गंगा” से करने वाले पुराने बयानों पर अब विरोध के स्वर उभरने लगे हैं। राजनीतिक टिप्पणीकारों का कहना है कि “जब कोई दल हर विचारधारा और हर चेहरे को आत्मसात कर लेता है तो उसकी पवित्रता स्वाभाविक रूप से संदिग्ध हो जाती है”। जनता के बीच भी अब यह चर्चा आम है कि भाजपा अपनी नजरों में गंगा की तरह सर्वस्वीकारी तो बन गई है लेकिन पाप धोते-धोते उसका जल मैला जरूर होता जा रहा है।

गंगा से भाजपा की तुलना

सिंधिया को शीर्ष नेतृत्व का भरोसा..

भले ही नरेंद्र सिंह तोमर सहित भाजपा के तमाम नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया को भितरघती अथवा पैराशूट से आया मानते हो मगर भाजपा के अंदरूनी हलकों में यह धारणा भी प्रबल है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह सिंधिया पर भरोसा जताते हैं। जय विलास पैलेस में अमित शाह का भोज और प्रधानमंत्री द्वारा सिंधिया को “गुजरात का दामाद” कहना इसी राजनीतिक संकेत पर चार चांद लगा चुके हैं। इसके बाद से ही सिंधिया का प्रभाव पार्टी में और बढ़ा है।

अमित शाह और नरेंद्र मोदी का समर्थन

तोमर बनाम सिंधिया: दो शैली- दो दृष्टिकोण

राजनीतिक जानकारों का कहना है कि सिंधिया अपने समर्थकों के लिए सक्रिय, संवादशील और आक्रामक नेता हैं। वह मन, कर्म और वचन से अपने समर्थकों का साथ देते हैं और उनके अधिकारों के लिए जी जान से लड़ते हैं अतएव यही इनकी असली ताकत है जबकि नरेंद्र तोमर का रुख अपेक्षाकृत शांत और संयमित रहा है। यह अपने समकक्ष नेता अथवा समर्थकों से अक्सर असुरक्षा का भाव में रखते रहे। सत्ता और संगठन में यही अंतर अब शक्ति संतुलन को प्रभावित कर रहा है।

मध्य प्रदेश भाजपा में बढ़ती गुटबाजी न केवल संगठनात्मक अनुशासन के लिए चुनौती बन गई है बल्कि पार्टी की वैचारिक दिशा पर भी प्रश्नचिह्न लगा रही है। ग्वालियर से सागर तक फैला यह संघर्ष दर्शाता है कि“कांग्रेस मुक्त भारत” का नारा अब कांग्रेस युक्त भाजपा” में बदल चुका है और यही इस सियासी समीकरण की सबसे बड़ी विडंबना है।