कम वेतन, भारी काम का बोझ; शिक्षा विभाग की चुप्पी पर सवाल !
एसबी राज तंवर भोपाल। ग्वालियर सहित मध्य प्रदेश के अधिकांश जिलों में निजी विद्यालयों द्वारा शिक्षकों का सुनियोजित शोषण बड़ा मुद्दा बनकर उभर रहा है। नाम मात्र की तनख्वाह, सुविधाओं का अभाव और सरकारी नियमों की धज्जियाँ उड़ाते स्कूल संचालकों पर लगातार शिकायतें बढ़ रही हैं, लेकिन शिक्षा विभाग की निष्क्रियता कई सवाल खड़े कर रही है। शिक्षकों के पक्ष में अब तेज़ आवाज़ उठने लगी है कि सरकार इस अनियमितता पर त्वरित कार्रवाई करे।
निजी विद्यालयों में “कम वेतन और अधिक काम” का सिस्टम बन गया है नियम
ग्वालियर, भिंड, मुरैना, शिवपुरी, श्योपुर, गंजबासौदा, सतना, रीवा, जबलपुर से लेकर इंदौर और भोपाल तक शिक्षकों की एक साझा पीड़ा सामने आ रही है_5,000–10,000 रुपये तक का औसत वेतन, छुट्टियों पर भी अतिरिक्त कार्य और किसी भी तरह की सुविधा या सुरक्षा का अभाव, साथ ही विद्यालय प्रबंधन द्वारा दुर्व्यवहार का शिकार भी होना पड़ता है और उनकी पीड़ा की सुनवाई का ना तो कोई भी अधिकार है और न ही आधिकारिक माध्यम। मजदूरों की तरह शोषित हो रहे यह शिक्षकगण क्या सरकार अथवा लोकतंत्र का हिस्सा नहीं यह बड़ा सवाल है!
कई शिक्षकों ने यह भी बताया कि स्कूल प्रबंधन नियुक्ति के समय मोटी सैलरी का लालच देता है, लेकिन बाद में सैलरी स्लिप नहीं, ईपीएफ नहीं, कोई लिहाज नहीं, बस मनमर्जी के नियम थोप दिए जाते हैं।
निर्धारित मापदंड के प्रावधान लागू हो..
हालांकि निजी विद्यालयों में न्यूनतम वेतनमान के लिए राज्य सरकार द्वारा कोई विशिष्ट न्यूनतम वेतनमान निर्धारित नहीं है। शिक्षकों को उनकी योग्यता, अनुभव और संस्था के आधार पर वेतन मिलता है जो अक्सर सरकारी विद्यालयों की तुलना में काफी कम होता है। कुछ मामलों में न्यायालय ने भी यह चिंता जताई कि “राज्य का निजी विद्यालयों के शिक्षकों को वेतन देने का कोई वैधानिक दायित्व नहीं है, कोई वैधानिक न्यूनतम वेतन नहीं ? मध्य प्रदेश में निजी स्कूलों के लिए सरकार द्वारा तय न्यूनतम वेतनमान का कोई उल्लेख नहीं है”?
शिक्षकों का वेतन उनकी योग्यता, अनुभव और विद्यालय के प्रकार पर निर्भर करता है। प्रतिष्ठित संस्थानों में अनुभवी शिक्षक अधिक कमा सकते हैं।
वर्तमान में, ऐसा कोई कानून नहीं है जो राज्य सरकार को निजी संस्थानों के शिक्षकों को वेतन देने के लिए बाध्य करता हो।शिक्षकों को यदि कोई शिकायत है, तो उन्हें संबंधित संस्थान के समक्ष ही अपनी बात रखनी पड़ती है क्योंकि उनके हितों की रक्षा के लिए सरकार के पास कोई प्लेटफार्म अथवा आधिकारिक माध्यम नहीं है। शिक्षकों का आरोप है कि निरीक्षण सिर्फ खानापूर्ति है। कई जिलों में स्कूलों ने बिना पर्याप्त स्टाफ, बिना योग्य शिक्षक और बिना संसाधनों के “फीस कम, शिक्षा बेहतरीन” का झूठा प्रचार कर रखा है।
ग्वालियर ज़ोन विशेष रूप से चर्चा में..
ग्वालियर–चंबल संभाग में हालात और भी गंभीर बताए जा रहे हैं। उच्च फीस वसूली के बावजूद शिक्षक मजदूरी से भी कम राशि पर पढ़ाने को मजबूर हैं। कई स्कूलों में शिक्षक 12वीं तक पढ़ाते हैं, लेकिन सैलरी चौथी-पांचवीं के स्टाफ जितनी मिलती है और ऊपर से संचालक अथवा विद्यालय प्रबंधन के दुर्व्यवहार की भी प्रताड़ना सहन करनी पड़ती है। नियमों की बात/ मांग करने पर प्रबंधन सीधे धमकी तक दे देता है_“नौकरी करनी है तो चुप रहो।”
शिक्षकों का कहना कि “हम शिक्षा दे रहे हैं, भीख नहीं मांग रहे”! कई शिक्षकों ने नाम न बताने की शर्त पर बताया कि “हमसे वर्कलोड ऐसे लिया जाता है जैसे हम मशीन हों। पीरियड भी अधिक, प्रशासनिक काम भी, और सैलरी पूछो तो कहते हैं कि ‘मन नहीं है तो नौकरी छोड़ दो’।”
सरकार और शिक्षा विभाग की बड़ी जिम्मेदारी
निजी शिक्षा को नियंत्रित करना राज्य सरकार का दायित्व है।
इस स्थिति में शिक्षकों की प्रमुख मांगें— न्यूनतम वेतनमान को निजी स्कूलों में अनिवार्य रूप से लागू किया जाए। *ईपीएफ, सैलरी स्लिप, सेवा शर्तें और सुविधा उपलब्ध कराई जाएं। स्कूलों के नियमित और सख्त निरीक्षण हों। *वेतन शोषण पर तुरंत कार्रवाई हेतु जिला-स्तरीय कमेटी बनाई जाए।
शिक्षक हित में कड़े कदम न उठे तो बड़े आंदोलन की तैयारी
ग्वालियर सहित कई जिलों में शिक्षक संगठन अब आंदोलन की रणनीति बना रहे हैं। उनका कहना है कि यदि सरकार और
शिक्षा विभाग ने जल्द हस्तक्षेप न किया तो राज्यभर में बड़ा आंदोलन खड़ा होगा, जिसका असर सीधे शिक्षा व्यवस्था पर पड़ेगा।
मध्य प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था अगर मजबूती चाहती है, तो सबसे पहले शिक्षक सम्मान और अधिकार सुनिश्चित करना होगा। निजी विद्यालयों में जारी शोषण पर त्वरित और ठोस कार्रवाई आज की सबसे बड़ी जरूरत है।
