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ग्वालियर में डॉक्टरों द्वारा मरीजों का शोषण जारी

डॉक्टरों द्वारा अस्पष्ट, ब्रांडेड दवाओं के प्रिस्क्रिप्शन पर HC/SC की सख्त टिप्पणियाँ अनदेखी ?

ग्वालियर। प्राइवेट प्रैक्टिस कर रहे डॉक्टरों द्वारा मरीजों को सीधे, स्पष्ट और जेनेरिक नामों में दवाइयाँ लिखने के सुप्रीम कोर्ट/ हाईकोर्ट द्वारा दिए गए दिशा-निर्देशों तथा पेशेवर आचार संहिता के न्यायदृष्ट आदेशों की अवहेलना स्थानीय स्तर पर जारी है। यह अवहेलना सीधे मरीजों के आर्थिक शोषण और डॉक्टर-मेडिकल स्टोर के गोरखधंधे के प्रति प्रश्न खड़े करती है।

गौरतलब है कि शीर्ष न्यायालय ने सुनवाई में स्पष्ट कहा है कि डॉक्टरों को केवल जेनेरिक दवाओं के नाम ही लिखने चाहिए, ताकि मरीज किसी भी मेडिकल स्टोर से अपनी पसंद की सस्ती दवा ले सकें और फार्मा कंपनियों द्वारा रिश्वत-आधारित ब्रांडेड नामों का प्रभाव ख़त्म हो सके।
इसके अलावा, राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (NMC) की Registered Medical Practitioners (Professional Conduct) नियमावली के तहत यह कहा गया कि दवाइयों के नाम स्पष्ट और पठनीय रूप से जेनेरिक रूप में लिखे जाएँ, अन्यथा डॉक्टरों के लाइसेंस पर कार्रवाई तक हो सकती है।
सुप्रीम कोर्ट ने अनैतिक नैदानिक व्यवहार और फार्मा-डॉक्टर लाभ/कमिशन नेटवर्क से उबरने के लिए इस दिशा को अपनाने का समर्थन भी किया है।

ग्वालियर में कानून की धज्जियाँ उड़ रही हैं

परन्तु स्थानीय ग्वालियर में प्राइवेट क्लीनिकों और नर्सिंग होमों के डॉक्टर्स अब भी दवाइयों के नाम अस्थिर, अस्पष्ट,

नर्सिंग होम का पर्चा

पढ़ने में कठिन और केवल “सरटिफिकेट/स्टोर के लिए” लिखते हैं, जैसे कि केवल वही व्यक्ति पढ़ सके जो लिख रहा है — यह मरीज की समझ और विकल्प को सीमित करता है। इसका सीधा परिणाम यह होता है कि मरीज महँगे ब्रांडेड उत्पाद लेने को बाध्य होता है, जिससे उसका स्वास्थ्य खर्च जबरदस्ती बढ़ जाता है।

सीएमएचओ का पक्ष और सवाल उठते तथ्य

ग्वालियर के मुख्य चिकित्सा एवं स्वास्थ्य अधिकारी (CMHO) सचिन श्रीवास्तव को उदाहरण के रूप में ग्वालियर में गोले के मंदिर स्थित एक नर्सिंग होम के डॉक्टर द्वारा लिखा पर्चा भेज कर जब इस बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा,

> “यह प्राइवेट क्लीनिक का प्रसाय है और वे लिख सकते हैं।”
लेकिन जब युग क्रांति प्रतिनिधि ने हाई कोर्ट/SC के आदेशों का हवाला देते हुए स्पष्टता की मांग की, तो उन्हें जवाब मिला कि “उपयुक्त डॉक्टर को नोटिस जारी किया जाएगा।”

स्वास्थ्य एवं चिकित्सा अधिकारी का इस प्रकार का रवैया सवाल उठाता है_क्या यह अनदेखी है या अप्रत्यक्ष समर्थन?_  क्या कहीं अधिकारियों का भी डॉक्टर स्टोर कमिशन चक्र में हितदर्शिता जुड़ी है?_ क्या मरीजों के हक़ की रक्षा सुनिश्चित करने वाला कानून सिर्फ कागज़ों में ही है ?

कानूनी और सामाजिक प्रभाव

विशेष रुप से यह मुद्दा मरीज का मौलिक अधिकार से जुड़ा है। सुप्रीम कोर्ट के जरिये दवाओं के जेनेरिक नामों को लिखवाने की दिशा स्वास्थ्य खर्च कम करने, पारदर्शिता देने और अनैतिक वित्तीय लेन-देन को रोकने की कोशिश है।

लेकिन ग्वालियर के डॉक्टरों तथा स्थानीय स्वास्थ्य प्रशासन की हल्की-फुल्की प्रतिक्रिया यह संकेत देती है कि
👉 मरीज अभी भी फायदे के बजाय फार्मा-चेन के चक्र में फँसे हुए हैं.
👉 आदेशों की कानून की संवेदनशीलता का पालन नहीं हो रहा है.
👉 और इससे गरीब और मध्यम वर्ग के मरीजों के स्वास्थ्य-व्यय पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ रहा है।