माइने बदलकर मुख्यमंत्री की सभी बातों से ताल्लुक रखते हैं तमाम इंजीनियर..
अपने पूर्वजों की तरह आने वाली पीढ़ी को हम क्या देने वाले हैं..
भोपाल 11 अगस्त 2025। भोपाल के रविंद्र भवन में आयोजित “पर्यावरण से समन्वय” कार्यशाला में लोक निर्माण विभाग के मंत्री ने भले ही प्रदेश भर के इंजीनियरों के जमावड़े के रूप में मुख्यमंत्री पर टीम का प्रभाव जमाने की कोशिश की हो मगर इस बात को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि लोक कल्याण के नाम पर चल रहीं लोक निर्माण विभाग की तमाम संरचनाएं बनने के साथ ही अथवा पूर्ण होने से पहले ही बिखरना शुरू हो जाती है। लिहाजा पर्यावरण के साथ समन्वय स्थापित करवाने की बजाय जरूरी है कि कमीशन खोरी से मुक्त करा कर इन इंजीनियरों का कार्य की गुणवत्ता के साथ समन्वय कैसे बनाया जाए।
कार्यशाला में मुख्यमंत्री मोहन यादव ने अपने उद्बोधन में कहा कि “लीक से हटकर सोचें और काम करें, मिट्टी की प्रकृति के अनुरूप कार्य करना चाहिए, कार्य की गुणवत्ता का ध्यान रखें, हमारा काम हमें खुद भी अच्छा लगना चाहिए” बगैरा बगैरा। इस पर मैं बताना चाहूंगा कि मुख्यमंत्री डॉ यादव को शायद इस बात का इल्म नहीं है कि प्रदेश के अधिकांश इंजीनियर उनकी इन तमाम बातों पर पूरी तरह से अमल करते हैं मगर उसके मायने बदलकर।
पीडब्ल्यूडी के कुछ इंजीनियर लीक से हटकर कुछ इस तरह भी सोचते हैं कि ठेकेदारों के बिलों में अनावश्यक अड़चनें पैदा करके उसे लंबे समय तक परेशान करना और बाद में ठेकेदार से लंबा चौड़ा कमीशन अथवा फर्म में भागीदारी की मांग करते हैं। मिट्टी की प्रकृति के अनुरूप कार्य करने की बजाय अपनी प्रकृति के अनुरूप इंजीनियर कार्य करते हैं। उपयंत्री से प्रमुख अभियंता तक की पोस्टिंग के लिए पदानुसार किये गये लंबे- चौड़े इन्वेस्टमेंट की प्रकृति के अनुरूप (इन्वेस्टमेंट के बदले) इनके द्वारा पदानुसार कमाई की जाती है। इसलिए ये लोक निर्माण की संरचना की गुणवत्ता पर ध्यान न रखते हुए सिस्टम की गुणवत्ता पर जोर देते हैं। काली कमाई के रूप में इनका यह काम आम जनता को अच्छा लगे अथवा नहीं मगर कार्य को अंजाम देने वाले इंजीनियर को बहुत अच्छा लगता है। पवित्र भाव के साथ भले ही “पर्यावरण से समन्वय” विषय पर संगोष्ठी का आयोजन हुआ मगर भावनाओं की पवित्रता कोसों दूर छूट गई है और आत्मा प्रायः मृत समान हो गई है।
लोक निर्माण मंत्री राकेश सिंह ने कहा कि “हमारी बहुत अच्छी सड़क हो और सारे तालाब सूख जाएं, बड़े-बड़े पुल हम बनाएं और नीचे बहने वाला पानी काला हो जाए तो वह विकास किस काम का”?.. मुझे लगता है कि मंत्री जी की इस चिंता के लिए सरकार के पास अन्य विभाग और उसका संबंधित अमला है। आपको तो सिर्फ और सिर्फ इस बात पर चिंता करनी चाहिए कि लोक कल्याण में लोकार्पित नवीन संरचनाएं पूरी तरह से दुरस्त और टिकाऊ हों और लोकहित में कार्य कर रहे ठेकेदारों का अनावश्यक शोषण न हो।
मंत्री श्री सिंह ने अंत में बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही कि” हमारे पूर्वज बहुत ही कुशल अभियंता थे, वर्तमान में जो भी हम प्रकृति से प्राप्त कर रहे हैं यह उन्हीं की देन है, उन्होंने इसका इतना सिस्टमैटिक संरक्षण किया कि इसका लाभ हमें और आने वाली पीढ़ियों को मिलने वाला है। हमारे पूर्वजों ने जो अपनी भूमिका निभाई लेकिन क्या आने वाली पीढियां के लिए हम अपनी भूमिका निभाने को तैयार है”?
यह वाकई चिंतन और मंथन करने योग्य प्रश्न है, इस पर उपयंत्री से लेकर वहां मौजूद अतिथिगण तक को गहनता से मनन करने की जरूरत है। जिन पूर्वजो का हम जिक्र कर रहे हैं उनके कालखंड में कमीशनखोरी अथवा भ्रष्टाचार का इतना बोल वाला नहीं था। वे देश के प्रति सच्ची श्रद्धा और पवित्र भावना के साथ कार्य करने वाले वाकई कुशल एवं सच्चे अभियंता थे। उन्होंने अपने पवित्र भाव से अपने कालखंड में जो बोया उसे आज उनकी पीढ़ी के रूप में हम सब आनंद के साथ उपभोग कर रहे हैं। लेकिन आज जिस दूषित भावना के साथ लोक कल्याण के नाम पर जो बोया जा रहा है उसे हमे और हमारी पीढ़ी को भोगना है। घटिया मटेरियल से बना कोई भी पुल यह देख कर नहीं गिरेगा कि मुख्यमंत्री, मंत्री, बड़े अधिकारी अथवा गरीब और किसान का बेटा उसे पर से गुजर रहा है। इस बात को भली भांति समझने की जरूरत है कि कर्मों का फल मिलना सुनिश्चित है चाहे वह अच्छे कर्म अथवा बुरे।
बता दें कि इस विभाग में 12.5% से 80% तक कमीशन चलता है जहां तक कि निर्माण एवं विकास की कई संरचनाएं कागजों में ही पूरी हो जाती है और उसके फंड का ठेकेदार एवं अधिकारियों के बीच बंदर बांट हो जाता है। विकास कार्यों की जमीनी हकीकत से भिन्न कागजो में तो हम सिंगापुर को भी पीछे छोड़ देंते है। यदि वाकई अगली पीढ़ी की चिंता है तो समस्त कार्य योजनाओं और उसके बजट को सार्वजनिक पटल पर उजागर करिने का साहस दिखाएं।
सनातन के सबसे बड़े कर्म योगी भगवान श्री कृष्ण के वंशज होने के नाते प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ मोहन यादव से यह आशा की जा सकती है कि इस प्रदेश को प्रकृति से समन्वय के नाम पर पर्यावरण विभाग के बजट को ठिकाने लगाने जैसी कार्यशालाओं की नहीं बल्कि इन तथाकथित निर्माण एजेंसियों की जड़ों में व्याप्त हो रही कमीशनखोरी की दीमक के परमानेंट ट्रीटमेंट हेतु बड़ी-बड़ी प्रयोगशाला एवं कार्यशाला की जरूरत है। तभी सुनहरे भविष्य की परिकल्पना की जा सकती है बर्ना सब फिजूल और नौटंकी है।