सत्ता हो या विपक्ष, सब एक सुर में ‘अपना हित’ साधने में तत्पर
_युग क्रांति विशेष रिपोर्ट
नई दिल्ली/भोपाल। देश की राजनीति में एक विचित्र परंपरा तेजी से गहराती जा रही है – जब बात जनहित के सवालों की होती है तो सदन में घोर मतभेद, हंगामा और वॉकआउट तक की नौबत आ जाती है
लेकिन जैसे ही मुद्दा आता है वेतन, भत्तों और सुविधाओं का, तब सत्ता और विपक्ष दोनों पाटियों के नेता एकजुट होकर अध्यादेश या विधेयक को चुटकियों में पारित कर देते हैं।
📊 संसद से लेकर राज्यों तक आंकड़े यह बोलते हैं
केंद्र स्तर पर मार्च 2025 में सांसदों का वेतन 24 % बढ़ाकर ₹1 लाख से ₹1.24 लाख मासिक किया गया। यह निर्णय लगभग सर्वसम्मति से पारित हुआ, जबकि उसी समय महिला आरक्षण एवं शिक्षा-स्वास्थ्य बजट पर कोई ठोस सर्व-दल सहमति नहीं बन पाई।
उत्तर प्रदेश विधानसभा ने अगस्त 2025 में विधायकों और मंत्रियों के वेतन-भत्तों में लगभग 40 % की वृद्धि की – कोई विरोध नहीं हुआ।
हिमाचल प्रदेश में दिवाली से पहले विधायकों का वेतन ₹55,000 से बढ़ाकर ₹70,000 तथा मुख्यमंत्री का वेतन ₹95,000 से बढ़ाकर ₹1.15 लाख कर दिया गया।
और अब मध्य प्रदेश में भी विधायकों के वेतन और पेंशन में वृद्धि की तैयारी है। वर्तमान में विधायक ₹1.10 लाख मासिक प्राप्त करते हैं, किंतु हाल ही में गठित तीन-सदस्यीय समिति ने वेतन एवं भत्तों को लगभग दुगुना करने की सिफारिश पर विचार किया है। रिपोर्ट दिसंबर 2025 में प्रस्तुत होने की संभावना है।
⚖️ जनता के मुद्दों पर बहस, अपने हित पर सहमति
कृषि कानून, बेरोजगारी, महंगाई, शिक्षा या जनस्वास्थ्य जैसे मुद्दों पर सदनों में लंबी-लंबी बहसें चलती हैं। कई बार तो कार्यवाही स्थगित करनी पड़ती है।
लेकिन जब अध्यादेश अपने वेतन-भत्तों, भत्तों की सीमा या पेंशन वृद्धि से संबंधित होता है, तब पूरा सदन कुछ ही मिनटों में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित कर देता है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह “जन-प्रतिनिधि से जन-हितैषी बनने के बीच की दूरी” को उजागर करता है।
🧾 सुविधाओं का विस्तार – “जनसेवा” के नाम पर लाभों की लड़ी
वर्तमान में एक सांसद को औसतन —
₹1.4 लाख मासिक वेतन,
₹60,000 कार्यालय भत्ता,
₹45,000 संसदीय क्षेत्र यात्रा भत्ता,
₹70,000 आवास व टेलीफोन सुविधा मिलती है।
राज्य स्तर पर विधायक औसतन ₹1–1.5 लाख मासिक के अलावा पेट्रोल, ड्राइवर, निजी सचिव, नि:शुल्क सरकारी आवास, चिकित्सा सुविधा और पेंशन लाभ प्राप्त करते हैं।
🗣️ विश्लेषक बोले – “एकता अपने हितों में ही क्यों?”
राजनीतिक विश्लेषक डॉ. सुरेश त्रिपाठी के अनुसार,
> “जब बात वेतन-भत्तों की आती है, तब नेताओं की विचारधाराएँ, धर्म-जाति या पार्टी की सीमाएँ खत्म हो जाती हैं। यही एकजुटता अगर शिक्षा, रोजगार और किसान नीतियों में दिखाई देती तो भारत की तस्वीर कुछ और होती।”
वेतन-भत्तों पर नेताओं की यह सर्व-दलीय एकता लोकतांत्रिक शुचिता पर प्रश्नचिह्न लगाती है। जनता यह सवाल पूछ रही है कि क्या प्रतिनिधियों की प्राथमिकता जनता की भलाई है या अपनी सुविधाएँ? सत्ता और विपक्ष जब अपने हितों पर इतनी तत्परता दिखा सकते हैं, तो राष्ट्रहित में वही एकता क्यों नहीं?
