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भारतीय क्रांति के महानायक- वीर सावरकर

सावरकर जी ऐसे पहले भारतीय थे जिन्होंने वकालत की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थी। लेकिन उन्होंने अंग्रेज सरकार की वफादारी की शपथ लेने से मना कर दिया था, जिसके कारण उन्हें वकालत की उपाधि प्रदान नहीं की गयी।

वर्ष 1899 में सावरकर ने ‘देश भक्तों का मेला’ नामक एक दल का गठन किया। जबकि 1900 में उन्होंने ‘मित्र मेला’ नामक संगठन बनाया। चार वर्ष बाद यही संगठन ‘अभिनव भारत सोसाइटी’ के नाम से सामने आया। इस संगठन का उद्देश्य भारत को पूर्ण राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्त कराना था। इसी बीच सावरकर कानून की पढ़ाई करने के लिए लंदन चले गए। वे जून 1906 में पर्शिया नामक जलपोत से लंदन के लिए रवाना हुए। उन्हें विदाई देने के लिए परिवार के सभी सदस्य मित्र एवं बाल गंगाधर तिलक भी गए थे। लंदन प्रस्थान से पूर्व उन्होंने एक गुप्त सभा में कहा था, “मैं शत्रु के घर जाकर भारतीयों की शक्ति का प्रदर्शन करूंगा”।

लंदन में उनकी भेंट श्याम जी कृष्ण वर्मा से हुई। लंदन का इण्डिया हाउस उनकी गतिविधियों का प्रमुख केंद्र था। उनकी योजना नये-नये हथियार खरीद कर भारत भेजने की थी ताकि सशस्त्र क्रांति की जा सके। वहां रहने वाले अनेक छात्रों को उन्होंने क्रांति के लिए प्रेरित किया। इंडिया हाउस में श्याम जी कृष्ण वर्मा के साथ रहने वालों में भाई परमानंद, लाला हरदयाल, ज्ञानचंद वर्मा, मदन लाल ढींगरा जैसे क्रांतिकारी भी थे। उनकी गतिविधियां देखकर ब्रिटिश पुलिस ने उन्हें 13 मार्च 1909 को गिरफ्तार कर लिया।

उन पर भारत में भी मुकदमे चल रहे थे, उन्हें मोरिया नामक पानी के जहाज से भारत लाया जाने लगा। 10 जुलाई 1909 को जब जहाज मोर्सेल्स बंदरगाह पर खड़ा था तो वे शौच के बहाने समुद्र में कूद गये और तैरकर तट पर पहुंच गये। उन्होंने स्वयं को फ्रांसीसी पुलिसकर्मी के हवाले किया लेकिन तत्कालीन सरकार ने उन्हें फ्रांसीसी सरकार से ले लिया और तब यह मामला हेग न्यायालय पहुंच गया। जहां उन्हें अंग्रेज शासन के विरूद्ध षड्यंत्र रचने तथा शस्त्र  भेजने के अपराध में आजन्म कारावास की सजा सुनाई गई।

सावरकर जी की सारी सम्पत्ति भी जब्त कर ली गई। सावरकर को अंग्रेज न्यायाधीश ने एक अन्य मामले में 30 जनवरी को पुनः आजन्म कारावास की सजा सुनाई। इस प्रकार सावरकर को दो आजन्म करावासों का दण्ड दे दिया गया। सावरकर को जब अंग्रेज न्यायाधीश ने दो आजन्म कारावासों की सजा सुनाई तो उन्होंने कहा कि, “मुझे बहुत प्रसन्नता है कि ब्रिटिश सरकार ने मुझे दो जन्मों का कारावास दंड देकर हिन्दू पुनर्जन्म सिद्धान्त को मान लिया है”।

सावरकर ने ब्रिटिश अभिलेखागारों का अध्ययन करके ‘1857 का स्वाधीनता संग्राम’ नामक महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखा। फिर इसे गुप्त रूप से छपने के लिए भारत भेजा गया। ब्रिटिश शासन इस ग्रन्थ के लेखन एवं प्रकाशन की सूचना मात्र से ही कांप उठा। तब प्रकाशक ने इसे गुप्त रूप से पेरिस भेजा। वहां भी अंग्रेज सरकार ने इस ग्रन्थ का प्रकाशन नहीं होने दिया, अन्ततः इसका प्रकाशन 1909 में हालैण्ड से हुआ। यह आज भी 1857 के स्वाधीनता संग्राम का सबसे विश्वसनीय ग्रन्थ है। सत्य तो यह है कि यदि सावरकर ने इस पुस्तक की रचना न की होती तो भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम इतिहास की पुस्तकों में एक मामूली ग़दर बनकर रह जाता।

1911 में उन्हें काला पानी यानि अंडमान भेज दिया गया। वहां उनके बड़े भाई गणेश सावरकर भी बंद थे। जेल में सावरकर पर घोर अत्याचार किए गए जो कि एक क्रूर इतिहास बन गया। कोल्हू में जुतकर तेल निकालना, नारियल कूटना, कोड़ों की मार, भूखे- प्यासे रखना आदि। सावरकर जी ने जेल में दी गई यातनाओं का वर्णन अपनी पुस्तक ‘मेरा आजीवन कारावास’ में किया है। अंडमान की काल कोठरी में उन्होंने कविताएं लिखी। उन्होंने मृत्यु को संबोधित करते हुए जो कविता लिखी वह अत्यंत मार्मिक व देशभक्ति से परिपूर्ण थी।

विनायक वीर सावरकर1921 में उन्हें अंडमान से रत्नागिरि जेल में भेज दिया गया। 1937 में वहां से भी मुक्त कर दिये गये। परन्तु वे सुभाष चंद्र बोस के साथ मिलकर योजना में लगे रहे। 1947 में उन्हें स्वतंत्रता के बाद गाँधी जी की हत्या के मुकदमे में झूठा फंसाया गया, लेकिन वे निर्दोष सिद्ध हुए। इस घटना के बाद वीर क्रांतिकारी सावरकर का स्वास्थ्य तेजी से बिगड़ने लगा और 26 फरवरी 1966 को उन्होंने माँ भारती की सेवा हित पुनः जन्म लेने का स्वप्न देखते हुए देह त्याग किया।

नमन है भारत माता के सपूत विनायक दामोदर सावरकर को!

लेखक: मृत्युंजय दीक्षित, विश्व संवाद केंद्र लखनऊ से जुड़े हुए है।